Tuesday, September 5, 2017

anubhuti 5

ग़म क़े  पैमानों  क़े बीच 
  ख़ुशी  की  एक प्यास आज  भी  है 

यूँ  तो रोज़  जा  लगते हैं होठो  पर 
और कर  जाते हैं  हलक   तर बतर 
जैसे 
बूँद गिरे  और  गायब हो किसी  बंजर पर

बरस के   भी ज़ो  मन  को ना सकी  सींच 
सावन में  एक  फुहार  की आस  आज भी है